About me

पीयूष कुमार जैन की लेखनी उनके अनुभवों, संघर्षों, और समाज की सच्चाई को उजागर करती है। उनकी शैली ईमानदारी और गहराई से पाठकों को जोड़ती है।


Mr. Piyush Jain
की कहानी

श्री पीयूष जैन

….में पत्रकार नहीं, पत्रकारिता अब मेरे शरीर का लहू है!

मेरी वह पहली 4000 की नौकरी आज मध्य प्रदेश में 70 लोगों को रोजगार दे रही है। हृदय से खुश ही नहीं, ऊपर वाले का दिल से आभारी हूँ।
नमस्कार दोस्तों… वैसे मुझमें जानने लायक जैसा कुछ भी नहीं है, पर जीवन के इस उतार-चढ़ाव में और पत्रकारिता के इस दौर में बहुत सी ऐसी बातें, घटनाएँ हुईं और देखीं जिसे समय-समय पर अपनी वेबसाइट में लिखता रहूँगा। यह एकमात्र मेरे जीवन में घटी घटनाओं पर लिखा जाएगा जिसमें मेरी खट्टी-मीठी पत्रकारिता की यादें होंगी और हर उस शख्सियत से आपकी मुलाकात होगी जिन्होंने मुझे इस सफ़र में हर कदम साथ दिया और उनका साथ निरंतर जारी है। इसी के साथ बढ़ते हैं आगे…
बात तब की है जब मैं मध्य प्रदेश के जिला भिंड में रहता था। वैसे मेरा पुश्तैनी मकान और दुकान आज भी वहीं है, पर अब भाई इंदौर में हैं। आज से 10 साल पहले मैंने भिंड को अलविदा कह दिया। वहाँ हमारी एक कपड़े की दुकान थी और उसे मैं चलाया करता था। पर जब लगा कि शायद मुझे दुकान चलाना रास नहीं आएगा, और शायद इस बात को इस तरह कहा जाए कि इतना धैर्य रखना मेरे बस की बात नहीं है, तब लगा कि कुछ करना चाहिए और इस जगह से निकलकर कहीं बड़ी जगह जाना चाहिए। तो फिर मैंने अपने दादा जी से कहा (वैसे मैं अपने दादा जी को “बाबू” कहकर बुलाता हूँ और मुझे भी नहीं पता क्यों; शुरू से ही सबको कहते हुए सुनता आ रहा हूँ, तो मैं भी कहने लगा), जब उन्हें बताया कि मैं अब यहाँ नहीं रहना चाहता और मुझे बाहर निकलना है यहाँ से, तो उनका सीधा एक ही जवाब था कि रहो जहाँ भी, पर तुम्हें बेचने तो कपड़े ही हैं। बाहर रहकर तुम किराये की दुकान लेकर उसे चलाओगे तो फिर यहाँ क्यों नहीं, जो अपनी खुद की पुश्तैनी दुकान है।

दोस्तों, तब लगा भी यही कि मैं करूँगा क्या? बाहर जाकर बेचने तो कपड़े ही हैं। पर कहते हैं ना कि एक सपना जब दिन में देखते हैं तो वह रातों की नींद भी ले लेता है। इसी तरह…
रह मैंने पत्रकारिता का सपना देखा था। पता नहीं क्यों, बचपन से ही जब भी अखबार पढ़ता, तो ऐसा लगता था कि शायद कभी कुछ ऐसा हो कि अखबार में मेरा नाम आए और लोग पहचाने कि “अरे, ये तो अपना पीयूष है।” नाम आए से ये बिलकुल नहीं है कि किसी घटना या आपराधिक गतिविधियों में नाम आए, नहीं तो यहां होशियार लोगों की कमी नहीं है। सोचा कि अच्छा, गुंडा बनना था। किसी भी खबर में नाम आए या फिर कुछ ऐसा कर सकूँ जो पब्लिश हो, तो लोग देखें और पढ़ें। जब यह बात बाबू को बताई, तो वह हँसने लगे और बोले, “बेटा, कपड़े बेचो और अगर इससे मन भर गया हो तो आजकल रेडीमेड का काम ज़्यादा चल रहा है, तो कपड़े की जगह रेडीमेड की दुकान चालू कर दो। और रही बात पत्रकारिता की, तो पत्रकार तो हमारे खानदान में दूर-दूर तक कोई भी नहीं है और तुम्हें पता है कि कितना रिस्की रहता है उनका जीवन।” जैसे ही ‘रिस्क’ शब्द उनसे सुना, तो कान खड़े हो गए, क्योंकि पानी तो चंबल नदी का पिया था। यों बस कह दिया, “अब जो भी करेंगे, यहां से निकलकर करेंगे।” तो बोले, “जाना कहाँ है?” “ग्वालियर।” क्योंकि तब अगर भिंड से बाहर जाने की बात होती भी थी, तो सिर्फ़ एक ही नाम ज्यादातर वहाँ के लोगों को आता था, वह था “ग्वालियर”।

यों की बिल्कुल नज़दीक था बड़ा शहर, पर मैंने कहा नहीं, एक ऐसी जगह जहाँ ना कोई रिश्तेदार हो और ना कोई पहचान वाला जो बोले, “अरे ये तो उनका मोड़ा है।” हमारे यहाँ, वहाँ की भाषा में लड़का-लड़की को “मोड़ा-मोड़ी” बोला जाता है। फिर क्या था, शुरू हो गया जगह का चयन। कुछ समय बाद बाबू ने ही इंदौर का नाम सुझाया। आपको जानकर हैरानी होगी कि आज से 10 साल पहले सिर्फ़ इंदौर का नाम सुना ही था बस हमने। मैंने कहा कि सुना तो है और अपने मध्य प्रदेश में ही है, “मिनी मुंबई” कहा जाता है। तो बस, बाबू के साथ आ गए इंदौर। पहली बार जब यहाँ आए तो उनके एक परिचित रहते थे यहाँ, जिन्हें बाबू ने कभी भिंड में अपने घर पर किराये पर रखा था और आज वह अपना परिवार इंदौर बस चुका था। उनसे मिले और बात हुई। उन्हें बताया कि इसे यहाँ सेट होना है इंदौर में, तो इसके लिए एक दुकान भी देखनी है छोटी सी, किराये पर। यहाँ यह रेडीमेड का काम करेगा। उन्होंने मुझे अपनी घर की छत पर बना एक कमरा किराये पर दे दिया। मतलब कभी वो हमारे किरायेदार थे और आज हम उनके। और फिर यहाँ से शुरू हुआ भिंड के मोड़े का इंदौरी भैया बनने का सफ़र।

इंदौरी भैया…
जब दुकानों की सर्चिंग शुरू हुई तो दुकान भी उनके घर के पास ही मिल गई जहाँ मुझे रेडीमेड का माल दिलाकर बैठा दिया गया और बाबू दोबारा भिंड के लिए निकल गए। अब मैं सिर्फ़ कपड़े की जगह रेडीमेड, और भिंड की जगह इंदौर में बेचने लगा। हर रोज सिर्फ़ यही एक बात आती कि कैसे कुछ हो पाएगा? एक तो नौकरी, ऊपर से बिल्कुल अलग, कोई जानता भी नहीं है। इस फील्ड में कुछ आता भी नहीं है। तब एक दिन अचानक नाई की दुकान पर नाई ने दाढ़ी पर उस्तरा चलाते-चलाते बताया कि उसके एक परिचित हैं जिन्होंने साप्ताहिक अखबार निकालना शुरू किया है और वह उसमें बड़े-बड़े खुलासे कर रहे हैं। तो कहते हैं ना, किसी प्यासे व्यक्ति को पता चल जाए कि वह जहाँ खड़ा है उसी के पास ठंडे पानी की मशीन लगी है, तो चेहरे पर मुस्कान आ ही जाती है। वैसे ही एक मुस्कान मेरे चेहरे पर आ गई। मैंने तुरंत उससे कहा कि मुझे उनसे एक काम है, वह मुझे उनका नंबर दे दें। उससे नंबर मिलते ही मैंने उन्हें फ़ोन लगा दिया और अपने बारे में बताने के बाद उनसे मिलने का समय लिया और जा पहुँचा। पहली बार इंदौर के एबी रोड पर स्थित प्रेस कॉम्प्लेक्स, उनका ऑफिस वहीं था। वह सज्जन भी सरल और मिलनसार निकले। जब उन्हें अपने बारे में…

में बताया और अपनी स्थिति बताई कि मैं अभी रेडीमेड की दुकान चलाता हूँ और अब से मुझे आपके साथ काम करना है और अखबार में खबरें लिखना है, तो वह बोले, “तुम्हें जब भी दुकान से समय मिले, आते रहा करो और थोड़ा-थोड़ा समझो कि कैसे खबर लिखी जाती है, कैसे काम होता है।” पर उन्हें मैं कैसे समझाता कि जिस काम के लिए वह समय निकालकर आने के लिए कह रहे हैं, वही मेरा मुख्य लक्ष्य है और उस काम से मुझे समय निकालकर दुकान पर जाना है। खैर, मैंने भी उनकी बात पर हाँ में सिर हिला दिया और कुछ देर तक बैठने के बाद वहाँ से दुकान के लिए चला गया। दुकान पर बैठे-बैठे सोचा कि अब हर रोज कम से कम 3 घंटे के लिए तो वहाँ जाऊँगा ही, पर जब पहले दिन गया तो शाम को ही लौटा उनके ऑफिस से। इसी तरह कुछ दिनों तक उनके ऑफिस पर समय ज़्यादा दिया और दुकान पर कम। नतीजा निकला कि जिन्होंने हमें अपने यहाँ रुकवाया था, उन्हीं ने बाबू को फोन करके दुकान अधिकांश समय बंद रहने की सूचना दे दी। बाबू का फोन मेरे पास आ गया। उन्होंने कारण जाना मुझसे दुकान बंद रहने का, तो मैंने उन्हें पूरी बात बताई। फिर क्या था, उनका भिंडी की भाषा में हुआ बढ़िया से प्रवचन शुरू और ऐसे ही देखते-देखते दुकान…
न पूरी तरह बंद-बंद, बाद में जब मैंने उन्हें यह बात बताई तो उन्होंने ही मुझे नौकरी ुझे ऑफर कर दी। उन्होंने कहा, “तुम्हें अखबार छपने के बाद सभी सरकारी संस्थानों पर जाकर बाँटने भी है और सुबह ऑफिस की सफाई के बाद खबरें लिखने पर ध्यान लगाना है।” तो तुम्हें सैलरी मिलेगी। उनकी यह बात मैंने तत्काल स्वीकार कर ली, क्योंकि मुझे मेरे सपने का पहला पड़ाव पार होता दिख रहा था। उक्त प्रसंग के बाद तो हर रोज़ की इस प्रतिस्पर्धा में बहुत से बड़े और अच्छे संस्थानों में बहुत ही वरिष्ठ लोगों के साथ काम करने का अनुभव मिला और लगातार मौका मिल भी रहा है।

नया अध्याय…..
नवंबर 2018 से फिर एक नया अध्याय शुरू हुआ। अध्याय का नाम था “कड़वाहट न्यूज़ नेटवर्क”। सबसे पहले तो मैं आपको बता दूँ कि नाम “कड़वाहट” क्यों रखा गया। देश के महान संतों में शुमार राष्ट्रीय संत मुनि श्री तरुण सागर जी महाराज के समाधि का समाचार प्राप्त हुआ। एक दिन अचानक ही उनकी प्रवचन की एक पुस्तक आई थी जिसका नाम था “कड़वे प्रवचन”। जब उनकी समाधि की क्रिया मैं टीवी पर देख रहा था, तब मैंने सुना कि उनके प्रवचन की जो श्रृंखला चली आ रही थी, “कड़वे प्रवचन” भाग 1 से लेकर 10 तक की, वह अब रुक चुकी है; मतलब अब उनकी पुस्तक नहीं छपेगी। उन दिनों में अपने न्यूज़ ब्रांड के लिए नाम ही खोज रहा था, तो मुझे लगा कि क्यों ना हम भी हमारे ब्रांड का नाम “कड़वाहट न्यूज़ नेटवर्क” रखें? क्योंकि उनके प्रवचन का नाम जरूर “कड़वे प्रवचन” हुआ करता था, पर वह समाज में एक सच्चाई उजागर करते थे और समाज को एक नई दिशा देने का काम किया करते थे। और मैंने उनके प्रवचन के हर भाग को पढ़ा था। उनके प्रवचन सिर्फ़ जैनो के लिए ही नहीं हुआ करते थे, बल्कि जन-जन के लिए हुआ करते थे। शायद इसीलिए उन्हें राष्ट्रीय संत की उपाधि से नवाजा गया था। और अचानक ही उनकी समाधि…
जहाँ सबको स्तब्ध कर दिया था वहीं इस देश ने एक महान संत को खो दिया था, पर कहते हैं कि महान संत कभी भी दूर नहीं होते, उनके विचार और उनका आशीर्वाद कहीं न कहीं दिखता ही है।

यह हुई कड़वाहट चुनने की कहानी…
अब हम बताते हैं “कड़वाहट न्यूज़ नेटवर्क” की शुरुआत की। कड़वाहट की शुरुआत सबसे पहले एक राष्ट्रीय पत्रिका के रूप में हुई जो एक मासिक पत्रिका है। उसके बाद शुरू हुआ कड़वाहट न्यूज़ नेटवर्क का न्यूज़ चैनल “KNN News”, जो प्रमुख केबल नेटवर्क के साथ ही पूरी तरह से ई-मीडिया नेटवर्क है। डिजिटल भारत के बदलते इस दौर में अगर व्यक्ति के पास किसी चीज़ की कमी है तो वह है वक्त। हमने यह समझा भी और महसूस भी किया, इसलिए हमने अपने प्रिय पाठकों और दर्शकों को दिया ई-पत्रिका और उनका न्यूज़ चैनल उनके स्मार्टफोन में। अब उन्हें देश, विदेश और अपने शहर और गाँव की खबरों के लिए टीवी के सामने वक्त निकालकर बैठना नहीं पड़ता। वे मात्र एक टच से हर छोटी और बड़ी खबरों से रूबरू हो सकते हैं, वह भी बिना अपना कीमती वक्त गँवाए। हमने हमेशा से ही कोशिश की है कि खबरों को मात्र एक सूचना समझकर न दिया जाए, बल्कि शहर में घटित हो रहे…
पराधों से हमारे पाठकों और दर्शकों को सचेत भी किया जाए, इसलिए हमने खबरों को मिर्च-मसाला लगाकर परोसने के बजाय सिर्फ़ उन्हें समाज में हो रहे अपराध और भ्रष्टाचार से अवगत कराया और निरंतर कराते आ रहे हैं। मुझे इस बात की बेहद खुशी भी है कि हमें पसंद भी किया जा रहा है। बस सफ़र जारी है, आपकी उम्मीदों पर खरे उतरने का… और देश में नई पहचान बनाने का… सबके सहयोग के लिए दिल से धन्यवाद, दिल से आभार!!!