यदि पत्रकारिता लोकतंत्र की जननी है या पत्रकार लोकतंत्र के चौथे स्तंभ हैं, तो यकीन मानिए, 3 जनवरी की रात वह बस्तर के बीजापुर में एक राज्य-पोषित ठेकेदार के सेप्टिक टैंक में दफ्न मिली। लोकतंत्र की इस मौत पर अब आप शोक सभाएं कर सकते हैं, श्रद्धांजलि दे सकते हैं। जी हां, हम बात उस नौजवान की कर रहे हैं, जिसकी पत्रकारिता उसकी मौत के बाद भी कब्र से खड़ी होकर कांग्रेस-भाजपा को कटघरे में खड़ी कर रही है। हम बात उस मुकेश चंद्राकर की कर रहे हैं, जिसे ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने एक पत्रकार के रूप में ही पहचानने से इंकार कर दिया। हम बात उस नौजवान पत्रकार की कर रहे हैं, जिसकी मौत ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि पूरी दुनिया में भारत को ‘फ्लॉड डेमोक्रेसी’ का दर्जा क्यों मिला हुआ है। पूरी दुनिया जब नव वर्ष का स्वागत कर रही थी, इस आशा के साथ कि नया साल मानवता के लिए पिछले से कुछ बेहतर, और बहुत बेहतर होगा ; छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर क्षेत्र के बीजापुर में पूरी खामोशी और योजनाबद्ध तरीके से नर-पिशाचों द्वारा मुकेश चंद्राकर के रूप में लोकतंत्र को सेप्टिक टैंक में दफ्न किया जा रहा था। ये वे नर पिशाच थे, जिन्हें ‘दैनिक भास्कर’ जैसा कॉरपोरेट मीडिया उनके कुकर्मों पर पर्दा डालने के लिए इस ब्रह्मांड के सबसे बड़े समाजसेवी, सामाजिक क्षेत्र, शिक्षा, उद्यमिता और महिला सशक्तिकरण के प्रणेता के रूप में प्रस्तुत कर रहा था। मुकेश चंद्राकर की हत्या ने बता दिया है कि क्रोनी कैपिटलिज़्म (परजीवी पूंजीवाद) ने जिस तरह राष्ट्रीय स्तर पर अडानी-अंबानी पैदा किए हैं, उसी तरह उसने स्थानीय स्तर पर भी जिन अडानियों-अंबानियों को पैदा किया है, उनमें से एक सुरेश चंद्राकर है। पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या का मुख्य आरोपी वह व्यक्ति है, जिसे कांग्रेस-भाजपा ने बस्तर की लूट को सहज और निर्बाध बनाने के लिए अपनी सत्ता की ताकत का सहारा देकर पैदा किया है। आदिवासी विरोधी और मानवाधिकार विरोधी राज्य-प्रायोजित सलवा जुडूम ने जिन अपराधियों को पाला-पोसा-पनपाया है, सुरेश चंद्राकर उनमें से एक हैं। कुछ महीने पहले बाप्पी रॉय और उसके साथियों को रेत माफियाओं के खिलाफ रिपोर्टिंग करने पर गांजा तस्करी में फंसाने की कोशिश हुई थी। इस मामले में भी हमने पी. विजय जैसे एक और नर पिशाच को देखा था, जो सलवा जुडूम की ही उपज था और इस जुडूम के (खल)नायक एसआरपी कल्लूरी से जिसकी घनिष्ठता किसी से छुपी हुई नहीं है। इसी रेत माफिया ने पत्रकार कमल शुक्ला पर जानलेवा हमला किया था, जिसके वीडियो फुटेज आज भी हवा में तैर रहे हैं। लेकिन किसी हमलावार पर आज तक फैसलाकुन कोई कार्यवाही नहीं हुई। इन अपराधियों के साथ तब के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और कांग्रेस के व्यक्तिगत और सांगठनिक संबंध आज भी कायम है। इन अपराधियों के इसी स्तर के संबंध अब भाजपा से भी बन चुके हैं। पूरे प्रदेश में ये अपराधी आज हत्यारे गिरोह में तब्दील हो चुके हैं। अब क्रोनी कैपिटलिज़्म अडानी-अंबानी पैदा करने वाली एक आर्थिक प्रक्रिया ही नहीं है, एक राजनैतिक प्रक्रिया भी है, जो लोकतंत्र को सेप्टिक टैंक में दफ्न करने की ताकत रखती है। छत्तीसगढ़ निर्माण के बाद पिछले 24 सालों में बस्तर में कई लाख करोड़ का खेल हो चुका है और यह सब विकास के नाम पर हुआ है। इसलिए 120 करोड़ का सड़क घोटाला कोई मायने नहीं रखता। बस्तर के विकास के लिए केंद्र से लेकर राज्य तक (चाहे किसी भी जगह सरकार कांग्रेस की रही हो या भाजपा की) और राजनेता से लेकर अधिकारी और ठेकेदार तक कमर कसे हुए हैं। बस्तर के विकास के लिए 6-लेनी सड़क चाहिए और सड़क बनाने के लिए फोर्स चाहिए। बस्तर के विकास के लिए नक्सल उन्मूलन की जरूरत है और इसके लिए फोर्स चाहिए। बस्तर के विकास के लिए संसाधनों का दोहन जरूरी है, इसके लिए कॉर्पोरेट चाहिए और इसके लिए भी फोर्स चाहिए। लेकिन बस्तर के विकास के लिए आदिवासी नहीं चाहिए, उनके लिए हॉस्पिटल, स्कूल, आंगनबाड़ी नहीं चाहिए। यदि विकास के नाम पर इन सबकी, दिखावे के लिए ही सही, कभी-कभार चिंता जताई जाएं, तो इसके लिए भी फोर्स चाहिए। सोशल मीडिया में अपनी टिप्पणी में पत्रकार सौमित्र रॉय ने ठीक ही लिखा है — “यह भयानक विकास है। अपराधियों की सत्ता का विकास। संघियों का विकास। सत्ता को तेल लगाने वालों का विकास और गरीब आदिवासियों की हक की बात करने वालों का विनाश।” ‘कॉर्पोरेट बस्तर’ की यही सच्चाई है। इसी सच्चाई को अपनी त्वरित टिप्पणी में माकपा नेता बादल सरोज ने कुछ यूं बयान किया है — “बस्तर सचमुच में एक जंक्शन बना हुआ है ; एक ऐसा जंक्शन जहां के सारे मार्ग बंद हैँ : माओवाद का हौवा दिखाकर लोकतंत्र की तरफ जाने वाला रास्ता ब्लॉक किया जा चुका है। कानून के राज की तरफ जाने वाली पटरियां उखाड़ी जा चुकी हैं। संविधान नाम की चिड़िया बस्तर से खदेड़ी जा चुकी है। अब सिर्फ एक तरफ की लाइन चालू है : आदिवासियों की लूट, उन पर अत्याचार, सरकारी संपदा की लूट और उसके खिलाफ आवाज उठाने वालों का क़त्ल करने की छूट।” यही सच्चाई है, जिसे कांग्रेस-भाजपा दोनों मिलकर दबाना-छुपाना चाहते हैं। मुकेश की हत्या के बाद कांग्रेस-भाजपा एक-दूसरे पर जो आरोप-प्रत्यारोप लगा रही है, वह इसी मुहिम का हिस्सा है। वरना कौन नहीं जानता कि जो ठेकेदार कल तक तिरंगा लपेटे थे, आज वे भगवा धारण किए हुए हैं। कांग्रेस या भाजपा का होने या न होने का एक झीना-सा अंतर जो बचा हुआ था, वह भी सलवा जुडूम के दौर में खत्म हो गया था। महेंद्र कर्मा तब के भाजपा मंत्रिमंडल के 16वें मंत्री ठीक उसी प्रकार गिने जाते थे, जिस प्रकार बृजमोहन अग्रवाल कांग्रेस मंत्रिमंडल के 16वें मंत्री गिने जाते थे। अब हर खादी के नीचे खाकी है। कुछ अपवाद जरूर है और वे सम्मान के योग्य तो हैं ही, लेकिन उनके पास सत्ता की ताकत नहीं है। खादी के नीचे की यही खाकी है, जो इस सवाल को पूछने से रोकती है कि गंगालूर से लेकर मिरतुर तक जो सड़क बनाई गई थी, वह थी किसके लिए? आदिवासियों के लिए या कॉरपोरेटों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की लूट को ढोने के लिए? इस सड़क को बनाने का अनुबंध 16 टुकड़ों